योग के साधक तथा बाधक तत्त्व
1.
हठयोग प्रदीपिका के अनुसार योग के साधक तथा बाधक तत्त्व
हठयोग प्रदीपिका, स्वामी
स्वात्माराम द्वारा रचित एक प्रमुख ग्रंथ है जो हठयोग की साधना, विधियों और सिद्धांतों का विस्तृत वर्णन करता है। इस ग्रंथ में योग की सिद्धि
प्राप्त करने वाले तत्त्वों को साधक तत्त्व कहा गया है,
जबकि योग की साधना में विघ्न डालने वाले तत्त्वों को बाधक तत्त्व कहा गया है। यह ग्रंथ
स्पष्ट करता है कि योग के अभ्यास में सफलता के लिए उचित आचरण, मनोभाव और जीवनशैली आवश्यक है।
साधक तत्त्व (योग की साधना में सहायक तत्व)
हठयोग प्रदीपिका में छः प्रमुख साधक तत्त्वों का वर्णन किया
गया है,
जो इस प्रकार हैं:
1.
उत्साह (उद्यम)
– योग साधना के लिए निरंतर प्रयास, जोश और प्रबल इच्छाशक्ति आवश्यक है। उत्साही साधक कभी निराश नहीं होता और
अभ्यास में लगे रहकर सफलता प्राप्त करता है।
2.
साहस (धैर्य)
– साधक को मार्ग में आने वाली कठिनाइयों से न डरते हुए
साहसपूर्वक आगे बढ़ना चाहिए। यह मानसिक शक्ति का प्रतीक है।
3.
धैर्य (स्थैर्य)
– परिणाम की शीघ्र अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए। नियमित अभ्यास और
समय के साथ सफलता अवश्य मिलती है।
4.
तत्त्वज्ञान (सत्य का विवेक) – योग के
सिद्धांतों और तत्त्वों की समझ तथा विवेकशीलता साधक को भ्रम से बचाती है और सही
मार्ग पर रखती है।
5.
निश्चय (दृढ़ संकल्प) – लक्ष्य के प्रति अडिग
निश्चय ही साधना में स्थायित्व लाता है। मन में संदेह या द्वंद्व नहीं होना चाहिए।
6.
शुद्धाचार (शुद्ध जीवन व आचरण) – पवित्र जीवनशैली, संयमित आहार,
ब्रह्मचर्य और सदाचार योग में सफलता की कुंजी हैं।
इन तत्त्वों को अपनाने वाला साधक धीरे-धीरे योग की उन्नत
अवस्थाओं तक पहुंच सकता है।
बाधक तत्त्व (योग में विघ्न डालने वाले तत्व)
हठयोग प्रदीपिका में छह बाधक तत्त्वों का वर्णन भी किया गया
है, जो साधना में रुकावट बनते हैं:
1.
अत्याहार (अति भोजन) – आवश्यकता से अधिक भोजन
करने से शरीर आलसी और जड़ बनता है, जिससे साधना में
विघ्न आता है।
2.
प्रयास (अत्यधिक शारीरिक या मानसिक परिश्रम) – अत्यधिक श्रम से शरीर थक जाता है, जिससे साधना का
संतुलन बिगड़ता है।
3.
प्रलाप (अनावश्यक बातों में समय नष्ट करना) – व्यर्थ की बातचीत मन को चंचल बनाती है और ध्यान भंग करती है।
4.
अजिर्न (पाचन दोष)
– अपच या अस्वस्थ शरीर से साधना में मन नहीं लग पाता। उचित
आहार-विहार आवश्यक है।
5.
व्यर्थ जनसंग (अनुचित संगति) – बुरे या असंयमी
व्यक्तियों का संग साधक को गलत दिशा में ले जा सकता है।
6.
चंचलता (अस्थिरता)
– मन और शरीर की चंचलता साधना की एकाग्रता को बाधित करती है।
निष्कर्षतः, हठयोग प्रदीपिका
में साधक तत्त्वों को अपनाकर और बाधक तत्त्वों से बचकर साधक योग की उच्च अवस्था तक
पहुँच सकता है। इन तत्त्वों का पालन केवल योग के लिए ही नहीं, अपितु संपूर्ण जीवन के लिए उपयोगी है। यह ग्रंथ हमें यह सिखाता है कि सफलता
केवल विधियों से नहीं,
बल्कि उचित दृष्टिकोण और आचरण से भी प्राप्त होती है।
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