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योग के साधक तथा बाधक तत्त्व

  1.    हठयोग प्रदीपिका के अनुसार योग के साधक तथा बाधक तत्त्व हठयोग प्रदीपिका , स्वामी स्वात्माराम द्वारा रचित एक प्रमुख ग्रंथ है जो हठयोग की साधना , विधियों और सिद्धांतों का विस्तृत वर्णन करता है। इस ग्रंथ में योग की सिद्धि प्राप्त करने वाले तत्त्वों को साधक तत्त्व कहा गया है , जबकि योग की साधना में विघ्न डालने वाले तत्त्वों को बाधक तत्त्व कहा गया है। यह ग्रंथ स्पष्ट करता है कि योग के अभ्यास में सफलता के लिए उचित आचरण , मनोभाव और जीवनशैली आवश्यक है। साधक तत्त्व (योग की साधना में सहायक तत्व) हठयोग प्रदीपिका में छः प्रमुख साधक तत्त्वों का वर्णन किया गया है , जो इस प्रकार हैं: 1.     उत्साह (उद्यम) – योग साधना के लिए निरंतर प्रयास , जोश और प्रबल इच्छाशक्ति आवश्यक है। उत्साही साधक कभी निराश नहीं होता और अभ्यास में लगे रहकर सफलता प्राप्त करता है। 2.    साहस (धैर्य) – साधक को मार्ग में आने वाली कठिनाइयों से न डरते हुए साहसपूर्वक आगे बढ़ना चाहिए। यह मानसिक शक्ति का प्रतीक है। 3.    धैर्य (स्थैर्य) – परिणाम की शीघ्र अपेक्षा न...

हठयोग प्रदीपिका के अनुसार मिताहार

  परिचय हठयोग भारतीय योगशास्त्र की एक महत्वपूर्ण शाखा है, जिसका मुख्य उद्देश्य शरीर और मन को शुद्ध करके आत्मसाक्षात्कार की ओर अग्रसर करना है। हठयोग की साधना में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, मुद्राएं, ध्यान आदि के साथ-साथ आहार का विशेष महत्व है। इसमें आहार को न केवल शारीरिक स्वास्थ्य बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक विकास का भी मूल आधार माना गया है। इस संदर्भ में "मिताहार" (संयमित और संतुलित भोजन) को एक प्रमुख सिद्धांत के रूप में अपनाया गया है। मिताहार की परिभाषा "मित" का अर्थ है – सीमित या संयमित, और "आहार" का अर्थ है – भोजन। अतः मिताहार का तात्पर्य है – न बहुत अधिक और न बहुत कम, बल्कि आवश्यक मात्रा में, शुद्ध, सात्त्विक और समय पर लिया गया भोजन। हठयोगप्रदीपिका (श्लोक 1.58) में कहा गया है: "मिताहारं सुशीलत्वं यमधर्मोऽनुपालनम्। एते योगस्य साधकस्य प्रथमाङ्गानि वर्जयेत्॥" (मिताहार, सुसंयम, यम-नियम का पालन – ये योग की प्रारंभिक आवश्यकताएँ हैं।) मिताहार के गुण हठयोग के अनुसार मिताहार में निम्नलिखित विशेषताएँ होनी चाहिए: सात्त्विकता : भोजन शुद्ध, त...

उपनिषदों मेंं वर्णित योग का समीक्षात्मक- अध्ययन

  परिचय भारतीय दर्शन में उपनिषदों का एक विशेष स्थान है। ये वेदों के अंतिम भाग हैं और "वेदांत" के नाम से भी जाने जाते हैं। उपनिषदों का मूल उद्देश्य आत्मा (आत्मन्) और ब्रह्म (परम सत्य) के ज्ञान की प्राप्ति है। इस ज्ञान तक पहुँचने के लिए उपनिषदों में योग का मार्ग प्रस्तावित किया गया है। यद्यपि उपनिषदों में योग का वर्णन पतंजलि योगसूत्र की भांति सुव्यवस्थित नहीं है, फिर भी उसमें योग के सिद्धांत, अभ्यास और उसका परम उद्देश्य विस्तार से समझाया गया है। योग का अर्थ उपनिषदों में "योग" शब्द संस्कृत धातु "युज्" से बना है, जिसका अर्थ होता है – जोड़ना। उपनिषदों में यह आत्मा को ब्रह्म के साथ जोड़ने की एक साधना के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यहाँ योग केवल शारीरिक अभ्यास नहीं, बल्कि मानसिक, आध्यात्मिक और दार्शनिक साधना का नाम है। उपनिषदों में योग को आत्मसाक्षात्कार और मोक्ष प्राप्ति का साधन माना गया है। योग की अवधारणाएँ उपनिषदों में ध्यान योग (Meditative Yoga) ध्यान को उपनिषदों में योग का सर्वाधिक महत्वपूर्ण रूप माना गया है। श्वेताश्वतर उपनिषद में ध्यान की प्रक्र...